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भारतीय काव्यशास्त्र के नये क्षितिज

राममूर्ति त्रिपाठी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :403
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13762
आईएसबीएन :8171788386

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परंपरा कोई विच्छिन्न क्रम नहीं है। उसका स्वाभाविक विकास निरंतर होता रहता है।

परंपरा कोई विच्छिन्न क्रम नहीं है। उसका स्वाभाविक विकास निरंतर होता रहता है। कई बार उसमें बड़े निर्णायक उभार दिखाई देते हैं लेकिन वे स्वतः स्वतंत्र नहीं होते। वे बड़े वैचारिक द्वंद्व के, सांस्कृतिक उथल–पुथल के प्रतिबिंब मात्र होते हैं। अनेक बार अतिरिक्त उत्साह के कारण हम बिना जाने ही अपनी परंपरा से विरासत में प्राप्त ज्ञान को व्यर्थ और अनुपयोगी मान बैठते हैं, जिससे हम उस शक्ति से वंचित हो जाते हैं जो हमारे साहित्य और सांस्कृतिक जगत की प्राणधारा है। डॉ– राममूर्ति त्रिपाठी ने अपने आलोचनात्मक ग्रंथ भारतीय काव्यशास्त्र के नए क्षितिज में इसी शक्ति को, इसी प्राण–धारा को सुरक्षित रखने का गंभीर प्रयास किया है। पुरातन मनीषा आज के साहित्यालोचन की कहाँ तक सहयात्री हो सकती है, यही मूल चिंता लेखक के संपूर्ण विश्लेषण में व्याप्त है। लेखक ने अपने मंतव्य को कोरे सैद्धांतिक कथनों में प्रकट न करके साहित्य के गंभीर विश्लेषण के माध्यम से प्राचीन आचार्यों के वैचारिक मंथन को सारग्राही, प्रौढ़ और आवश्यक सिद्ध किया है। यद्यपि विद्वान लेखक ने विभिन्न काव्य–संप्रदायों के आचार्यों का चिंतन गवेषणापूर्ण ढंग से विश्लेषित किया है किंतु सर्वाधिक शक्तिशाली काव्य–सिद्धांत के रूप में आचार्य आनंदवर्द्धन ने रस–ध्वनि मत की अत्यंत विशद और गूढ़ विवेचना को केंद्र में रखा है। आधुनिक काव्यशास्त्र के क्षेत्र में सक्रिय आलोचकों और समीक्षकों की सोच की व्यापक पड़ताल, उनके मतों की भारतीय संदर्भों में समीक्षा के द्वारा लेखक ने पुरातन चिंतना की सार्थकता को सिद्ध करने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है। इसी के साथ पौरस्त्य और पाश्चात्य की वैचारिकता के प्रस्थान बिंदु, इलियट, क्रोचे आदि मनीषियों के अवदान की चर्चा ने ग्रंथ की उपादेयता और बढ़ा दी है।

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